दोस्त ने आइडिया दिया तो किसान ने जर्मन तकनीक से खेती करना शुरू किया। खेत में बांस रोपकर तारों का जाल बना दिया। इस पर लौकी की फसल लगाई। अब खेत में लौकी की बंपर पैदावार हो रही है। लौकी की क्वालिटी ऐसी कि दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों तक सप्लाई हो रही है। सीजन में प्रति बीघा 2 लाख कमाई हो रही है।
सीकर जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर की दूरी पर छोटा सा गांव है बेरी। 12वीं पास दिनेश के खेत में पहुंचे तो वहां उनके दोस्त और कृषि सहयोगी मोहम्मद नबी मिले। बांस के स्ट्रक्चर पर लौकी की बेल लहलहाती नजर आई। दो बीघा में फैले जाल के अंदर गए तो सैकड़ों लौकी लटक रही थी। ये काफी चमकीली और शानदार क्वालिटी की नजर आ रही थी।
हमने इस तकनीक और खेती को लेकर दिनेश से बात की तो उन्होंने बताया- 6 साल पहले 2018 में मैं दोस्त मोहम्मद नबी से मिलने उत्तर प्रदेश गया था। वहां मैंने देखा कि उस इलाके के किसान बांस का स्ट्रक्चर बनाकर सब्जियों की खेती कर रहे थे।
दोस्त नबी भी इसी तरह से खेती कर रहा था। मैंने उस तकनीक के बारे में पूछा तो बताया कि यह जर्मन तकनीक है। इसके बहुत फायदे हैं। नबी ने मुझे सलाह दी कि मैं सीकर में अपने गांव में इस तरह से खेती करूं। एक बार स्ट्रक्चर लगाने का खर्चा है। इसके बाद सब्जियों की क्वालिटी बेहतर हो जाएगी।
लौटकर मैंने यूट्यूब पर जर्मन तकनीक से की जाने वाली खेती के बारे में वीडियो देखना शुरू किया। मैं यह खेती शुरू करना चाहता था, इसलिए दोस्त नबी से मदद मांगी। साल 2019 में नबी सीकर आया। नबी के साथ मिलकर मैंने जर्मन तकनीक से खेती करने के लिए अपने 30 बीघा खेतों में से 2 बीघा का छोटा हिस्सा चुना।
सबसे पहले हमने 2 बीघा खेत की अच्छे से जुताई की। इसके बाद बाजार से लौकी के बीज ,400 बांस, लोहे और प्लास्टिक तार खरीदे। यह सामान 2 लाख रुपए का आया। इसके बाद बारी थी खेत में जर्मन तकनीक से प्लांट तैयार करने की।
हमने खेत में 10×10 फीट की दूरी पर 5-5 बीज लगाए। कुछ दिन में पौधे निकल आए। इसके बाद उन बीजों के पास बांस रोपना शुरू किया। इस तरह खेत में पौधों के पास बांस खड़े कर दिए। बासों का आधार मजबूत कर दिया। बेलों को बांस के चारों तरफ रस्सी से बांध दिया, ताकि बेल बांस का सहारा लेकर चढ़ें।
हमने सभी बांसों को पानी के पाइप के जरिए ड्रिप इरिगेशन यानी बूंद-बूंद सिंचाई तकनीक से जोड़ा। लौकी की फसल के लिए वैसे भी कम पानी की जरूरत होती है।
बांस अच्छी तरह जमने के बाद हमने उनके ऊपर के सिरों पर तारों का जाल बांधना शुरू किया। इस तरफ पूरे दो बीघा के खेतों में तारों का जाल बन गया। यह काफी मजबूत बनाना पड़ा। एक महीने में बेलें बढ़कर तारों पर फैलने लगी।
इस तरह खेत एक टेंट की तरह हो गया, जो बांसों के सहारे खड़ा था। इसके नीचे आराम से घूमने फिरने की जगह होती है। खरपतवार हटाने के लिए हमने दवा का इस्तेमाल किया। डेढ़ महीने बाद लौकी का प्रोडक्शन शुरू हो गया।
इस तकनीक से मिली लौकी काफी साफ सुथरी, चमकदार और बेहतरीन क्वालिटी की थी। बाजार में इसका अच्छा रेट मिलने लगा। सामान्य लौकी की तुलना में यह 5-6 रुपए ज्यादा महंगी बिकी। सीजन में प्रति बीघा 2 लाख से ज्यादा का मुनाफा हुआ है। इस तकनीक से मुझे फायदा हुआ।
दिनेश ने बताया कि सिर्फ वजन में हल्की सब्जियां ही जर्मन तकनीक से हो सकती है। खीरा, तोराई, ककड़ी, करेला और लौकी ऐसी ही फसलें हैं। लेकिन तरबूज, खरबूजा, कद्दू और पेठा इस तकनीक से नहीं लगा सकते। ये भारी सब्जियां हैं। एक ही फल का वजन कई किलो तक हो सकता है। ऐसे में इनकी जर्मन तकनीक से खेती नहीं की जा सकती।